जंगली जानवरों के खौफ से लोग खेती-बाड़ी छोड़ने को मजबूर, सरकार इस समस्या के समाधान के लिए नहीं बना पाई कोई पुख्ता योजना

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देहरादून। उत्तराखंड में जंगली जानवर खेती को बड़ा नुकसान पहुंचा रहे हैं। जानवरों के खौफ से लोग खेती-बाड़ी छोड़ने को मजबूर हैं और जो लोग खेती कर रहे हैं उनकी फसलें जंगली जानवर बर्बाद कर देते हैं। राज्य का कोई भी हिस्सा जंगली जानवरों के लिहाज से खेती के लिए सुरक्षित नहीं है। जंगली जानवरों से फसलों की बर्बादी और खेती का उजड़ना वन विभाग के साथ-साथ कृषि, उद्यान, ग्राम्य विकास जैसे कई विभागों के दायरे में आता है लेकिन किसी भी विभाग के पास इस समस्या के समाधान के लिए कोई पुख्ता योजना नहीं है। पर्वतीय क्षेत्रों में तो पलायन के कारण जंगली जानवरों का आतंक लगातार बढ़ता जा रहा है। सूअर, बंदर और लंगूर पहाड़ों में खेती को बर्बाद कर रहे हैं, जिससे पहाड़ों में खेती सिमटती जा रही है। जंगली जानवरों के आतंक के कारण लोग खेती करना छोड़ रहे हैं। पहाड़ों में खेती को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाने वाले जानवरों में सूअर और बंदर शामिल हैं। पहले की तुलना में पहाड़ों में सूअरों और बंदरों की संख्या में भी वृद्धि हुई है।
उत्तराखंड राज्य का कुल 63 प्रतिशत भूभाग वन क्षेत्र के रूप में चिन्हित है। पर्वतीय जिलों में सीढ़ीदार खेत वैसे ही खेती-किसानी को बहुत चुनौतीपूर्ण बना देते हैं। इस कारण राज्य के पास कृषि योग्य भूमि महज 11.65 प्रतिशत ही बचती है। यह जमीन भी मुख्य रूप से तीन मैदानी मैदानी जिलों में उपलब्ध है, लेकिन इन मैदानी जिलों में हाल के वर्ष में पहाड़ी जिलों के साथ ही राज्य के बाहर से भी बड़ी संख्या में आबादी बसी है, इस कारण उत्तराखंड में कृषि योग्य भूमि लगातार घट रही है। राज्य गठन के बाद से कृषि योग्य भूमि का क्षेत्र लगभग 1.49 लाख हेक्टेयर घट चुका है।
लेकिन इससे बड़ी चुनौती राज्य के सामने बची खुची खेती को जंगली जानवरों से बचाने की आन पड़ी है। प्रदेश के मैदानी क्षेत्रों में हाथी, नील गाय और पर्वतीय क्षेत्रों में बंदर और जंगली सुअर फसलों को बर्बाद कर रहे हैं। इस कारण किसान खेतीबाड़ी छोड़ कर आजीविका के लिए दूसरे विकल्प तलाशने को मजबूर हो रहे हैं। उत्तराखंड में वन क्षेत्र अधिक होने के साथ-साथ जंगली जानवरों की संख्या भी अधिक है। प्रदेश में वन्य जीवों के संरक्षण के लिए 6 नेशनल पार्क और 7 वाइल्ड लाइफ सेंचुरी के अलावा कई संरक्षित क्षेत्र हैं जिनके आसपास कृषि और आबादी वाले क्षेत्र हैं। मानव-वन्यजीव संघर्ष प्रदेश में पुरानी समस्या है जिससे खेती को नुकसान के मामले भी बढ़ते जा रहे हैं। ग्राम्य विकास एवं पलायन निवारण आयोग ने जानवरों से लोगों के साथ-साथ खेती-बाड़ी को होते नुकसान को राज्य में तेज होते पलायन के प्रमुख कारणों में से एक माना है। पहाड़ में पलायन के पीछे जंगली जानवरों का प्रकोप एक अहम कारण सामने आया है। हमने वन विभाग से आंकड़े मांगकर अध्ययन किया है। इस समस्या का निदान कैसे हो सकता है, इसके लिए दूसरे राज्यों का भी अध्ययन किया जा रहा है। बिहार ने नीलगायों से बचाव और दिल्ली ने बंदरों को पकड़ने के मामले में उल्लेखनीय सफलता हासिल की है, इस मॉडल को यहां भी अपनाया जा सकता है। जल्द रिपोर्ट सीएम को सौंपी जाएगी।
कुछ साल पहले तक गांव में बचे खुचे परिवार धान, गेंहू, मंडुवा, झंगोरा, उड़द, मसूर, चैलाई जैसी फसल लगा ते थे, लेकिन पलायन के कारण अब ज्यादातर खेत बंजर हो गए हैं, इस कारण जंगली जानवर गांव के और करीब आ गए हैं, नतीजा फसल की रखवाली मुश्किल काम हो गया है। कुछ समय पहले तक गांव में मोर की समस्या नहीं थी, लेकिन अब मोर घर के आगे की सब्जी भी चट कर जा रहे हैं। जंगली जानवरों से फसलों की बर्बादी और खेती का उजड़ना वन विभाग के साथ-साथ कृषि, उद्यान, ग्राम्य विकास जैसे कई विभागों के दायरे में आता है लेकिन किसी भी विभाग के पास इस समस्या के समाधान के लिए कोई पुख्ता योजना नहीं है। सूअर रात में और बंदर दिन में फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं। दोनों जानवरों का फसल को नुकसान पहुंचाने का तरीका अलग-अलग है। सूअर जमीन के नीचे वाली फसल को नुकसान पहुंचाता है, जबकि बंदर जमीन के ऊपर वाली फसल को। इस समस्या का समाधान सरकार को करना होगा और इसके लिए जानवरों के व्यवहार को समझना होगा। किसानों को भी इन सभी बातों पर विचार करना होगा, तभी इस समस्या से निपटा जा सकता है।

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