राज्य में वनाग्नि से निपटने के लिए न कोई दीर्घकालिक योजना और न कोई कारगर कदम

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देहरादून। उत्तराखंड में जंगलों में लगने वाली आग से बड़ी मात्रा में बेशकीमती वन संपदा नष्ट हो रही है। राज्य में हर वर्ष जंगलों में आग लगती है, लेकिन इससे निपटने के लिए सरकार द्वारा न कोई दीर्घकालिक योजना बनाई गई है और न ही कोई कारगर कदम ही उठाए जाते हैं। जंगलों में लगने वाली आग के प्रति वन विभाग अक्सर उदासीन ही बना रहता है। वनाग्नि की घटनाएं न हों इसके लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किए जाते हैं। ग्रामीणों को वनाग्नि के प्रति जागरूक करने की दिशा में भी कोई सार्थक प्रयास नहीं हो रहे हैं, जिस कारण ग्रामीण भी लापरवाह बने रहते हैं। उत्तराखण्ड में मुख्यतः चीड़ के वन ही जंगलों में आग की विभिषिका के लिए उत्तरदायी है।
उत्तराखण्ड में समुद्र सतह से 300 से 2000 मीटर की ऊँचाई पर पाये जाने वाले वनों में क्रमशः साल, चीड़ एवं बांज वनों में चीड़ के वनों का बाहुल्य है। स्थानीय निवासी चीड़ के वनों से जलावनी लकड़ी, पिरूल, फल-फूल एवं अन्य वन्य उत्पाद अपनी आजीविका हेतु इक्ट्ठा करते हैं। वन विभाग के लिए चीड़ के वृक्ष लीसा एवं ईमारती लकड़ी के रूप में एक मुख्य आय के स्रोत हैं। सालाना लगभग 70 से 80 हजार क्विंटल लीसा उत्तराखंड में प्राप्त होता है. जिसके विक्रय से लगभग 195 लाख रू. की आय उत्तराखण्ड को होती है। चीड़ के वृक्षों के उपयोग में इसकी फर्नीचर एवं ईमारती लकड़ी, फलों के पैकिंग हेतु इसकी पेटियां, कागज बनाने हेतु लुग्दी, इसके लीसे से प्राप्त होने वाले उच्च गुणवत्ता के तारपीन तेल एवं रोजिन का दवाओं एवं अन्य उपयोगी पदार्थों हेतु इस्तेमाल शामिल है।
उत्तराखण्ड में मुख्यतः चीड़ वन ही जंगलों में आग की विभिषिका हेतु उत्तरदायी है। स्थानीय निवासी चारागाहों के नियोजन एवं वन विभाग चीड़ वनों के नियोजन हेतु नियन्त्रित आग प्राचीन समय से ही लगाते आये हैं। जहां एक ओर स्थानीय निवासियों को आग लगाने के बाद वर्षा ऋतु में मुलायम घास की अच्छी पैदावार प्राप्त होती है, वहीं वन विभाग गर्मियों में वनों में आग की विभिषिका को कम करने हेतु नियन्त्रित फुकान की तकनीक को अपनाता रहा है। हाल के वर्षों में वन विभाग द्वारा मोटर मार्गो के दोनों ओर चीड़ पत्तियों को एकत्र करके नियन्त्रित फुकान भी किया जाने लगा है, जिससे यात्रियों की लापरवाही से लगने वाली आग को रोका जा सके। उत्तराखण्ड में चीड़ वनों में आग मुख्यतः सिर्फ मानव जनित कारणों से ही लगती है।
एक अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि उत्तराखंड़ में 63 प्रतिशत वनों की आग की घटनायें जान-बूझकर लगाई गई एवं शेष 37 प्रतिशत दुर्घटनावश होती हैं। मानव जनित आग के मुख्य कारणों में स्थानीय निवासियों द्वारा कृषि हेतु खेतों की सफाई एवं कंटीली झाड़ियों को जलाते समय आग का पास के जंगल में हवा के रूख से प्रवेश कर जाना, वन विभाग द्वारा नियन्त्रित आग लगाते समय अनियन्त्रित होकर जंगल में फैल जाना, घुमन्तु चरवाहों एवं लकड़हारों की लापरवाही, वाहन यात्रियों एवं पैदल पथ पर चलते समय धूम्रपान करने वालों द्वारा जलती तीली व बीड़ी-सिगरेट फेंक देना, मोटर मार्गो की मरमत्त एवं सफाई हेतु प्रयुक्त आग, रात्रि शिविर में पर्यटकों द्वारा भोजन बनाने इत्यादि हेतु आग जलाना अन्य कारण हैं। इसके अतिरिक्त भूमि पर कब्जा करने, वनीकरण की असफलता पर पर्दा डालने, आग के उपरांत गिरने वाले वृक्षों की नीलामी से स्थानीय ठेकेदारों को होने वाले लाभ, ईष्र्यावश विरोध जताने के तरीके भी आग लगने के कारणों में शामिल हैं। जंगल की आग की तीव्रता विभिन्न कारकों जैसे हवा की दिशा व वेग, वायुमंडल की गर्मी, भूमि में ज्वलनशील पदार्थ की उपलब्धता, भू-आकृति, पत्तियों एवं झडे़ हुई टहनियों के सूखेपन, वनस्पति के जीवन चक्र की अवस्था एवं ऋतु इत्यादि पर निर्भर करती है। प्राकृतिक रूप से चीड़ के वनों में पिरूल का पेड़ों से झड़ना मार्च अंत से शुरू होकर जून तक चलता है। माह अप्रैल मध्य से मई मध्य तक यह प्रक्रिया शीर्ष पर होती है। उत्तराखण्ड के वनों में इस पिरूल की मात्रा प्रतिवर्ष 4-5 टन हैक्टर मापी गई है। अतः इस प्रदेश में प्रतिवर्ष लगभग 4 लाख टन पिरूल का उत्पादन होता है। इस विशाल कार्बनिक संसाधन का कम लागत से उपयोग ढूंढना अनिवार्य है, लेकिन पिरूल में पाये जाने वाले उच्च लिग्निन एवं सैलुलोज तथा निम्न नाइट्रोजन के कारण इसके प्राकृतिक रूप से सड़कर विघटित होने की रफ्तार अन्य चैड़ी पत्ती के वृक्षों की पत्तियों की अपेक्षा काफी धीमी है। पिरूल को प्राकृतिक अवस्था में पूर्णतया सड़कर विघटित होने में लगभग 2 वर्ष लगते हैं, जिसकी वजह से इसे खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ाने हेतु गोबर की खाद के रूप में उपयोग को स्थानीय ग्रामीणों द्वारा प्राथमिकता नहीं दी जाती है। इसके उच्च कार्बन-नाइट्रोजन अनुपात के चलते इसकी खाद का प्रयोग फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कुरमुलों कीट के प्रकोप में वृद्धिकारक पाया गया है। चीड़ के वृक्षों की विशेषताओं में पशुओं की चराई के डर से मुक्ति, उर्वरकता विहीन शुष्क मिट्टी, अल्प वर्षा वाले क्षेत्रों एवं चट्टानी जगहों में इसके तेजी से उगने व पुर्नजनन की अदभुत क्षमता शामिल है। इसके विपरीत बांज स्थानीय निवासियों हेतु एक बहुउपयोगी वृक्ष है, जिससे वर्ष भर उत्तम चारा, उच्च कोटी की जलावनी लकड़ी, मृदा एवं जल संरक्षण जैसे हिमालयी जीवन की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। लेकिन बांज वृक्ष में उपरोक्त वह अन्य गुण नहीं है जो चीड़ में पाये जाते है। उत्तराखंड में जल संरक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण बांज वनों का धीरे धीरे सिकुड़ना बेहद चिन्ता का विषय है क्योंकि इन वनों से न केवल यहां का जन-जीवन व जलवायु जुड़ी है बल्कि यहां से निकलने वाली सदाबहार नदियां गर्मियों में पानी की अत्याधिक कमी व वर्षा ऋतु में बाढ़ की आवृति बढ़ रही है। वनों में अग्नि के मुख्य कारकों में उच्च वायुमंडलीय तापमान, चीड़ वनों में पिछले कुछ वर्षों से गिरी पत्तियों के न हटाऐ जाने से ज्वलनशील पदार्थ का भारी मात्रा में इक्ट्ठा होना, जाड़ों में वर्षा का न होना एवं स्थानीय निवासियों की कृषि एवं पशुपालन पर निर्भरता घटने से वनों के प्रति अलगाव एवं वनों को सरकारी सम्पत्ति समझना शामिल है। लीसा टिपान से घायल चीड़ वृक्षों में आग जल्दी पकड़ लेती है एवं वह वृक्ष को कमजोर कर देती है एवं मामूली आंधी में यह वृक्ष गिर जाते हैं।

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